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प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


दान०–मुझे क्या गरज पड़ी है जो आपकी तरफ से क्षमा मांगता फिरूं।

अमृत०–अच्छा न मांगना। किसी तरह पिण्ड भी छोड़ो।

दाननाथ इतनी आसानी से छोड़नेवाले आदमी न थे। घड़ी निकालकर देखी, पहलू बदला और अमरनाथ की ओर देखने लगे। उनका ध्यान व्याख्या पर नहीं, पण्डितजी की दाढ़ी पर था। उसके हिलने में उन्हें बड़ा आनंद आया। बोलने का मर्ज था। ऐसा मनोरंजक दृश्य देखकर वह चुप कैसे रह सकते? अमृतराय का हाथ दबाकर कहा–आपकी दाढ़ी कितनी सफाई से हिल रही है, जी चाहता है, नोचकर रख लूं।

अमृत०–तुम बड़े अभागे हो जो ऐसे सुंदर व्याख्यान का आनन्द नहीं उठा सकते।

अमरनाथजी ने कहा–मैं आपके सामने व्याख्यान देने नहीं आया हूं।

दान०–(धीरे से) और क्या आप घास खोदने आए हैं?

अमर०–बातें बहुत हो चुकीं, अब काम करने का समय है।

दान०–(धीरे से) जब आपकी जबान काबू में रहे?

अमर०–आप लोगों में जिन महाशयों को पत्नी-वियोग हो चुका है, कृपया हाथ उठाएं।

दान०–ओफ्फोह! यहां तो सब रंडुए-ही-रंडुए बैठे हैं।

अमर०–आप लोगों में कितने महाशय ऐसे हैं, जो वैधव्य की भंवर में पड़ी हुई अबलाओं के साथ अपने कर्तव्य का पालन करने का साहस रखते हैं। कृपया वे हाथ उठाए रहें।

अरे! यह क्या? कहां तो चारों तरफ हाथ ही हाथ दिख पड़ते थे, कहां अब एक भी हाथ नजर नहीं आता; हमारा युवक-समाज इतना कर्तव्य शून्य, इतना साहसहीन है! मगर नहीं–वह देखिए, एक हाथ अभी तक उठा हुआ है। वही एक हाथ युवक मण्डली के ताज की रक्षा कर रहा है। सबकी आंखें उसी तरफ फिर गईं। अरे! यह तो बाबू अमृतराय हैं।

दाननाथ ने अमृतराय के कान में कहा–यह तुम क्या कर रहे हो! हाथ नीचे करो।

अमृतराय ने दृढ़ता से उत्तर दिया–कदम आगे बढ़ाकर फिर पीछे नहीं हटा सकता।

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